"पैसे ही का अमीर के दिल में ख्याल है,
पैसे ही का फ़कीर भी करता सवाल है।
पैसे ही रंग-रूप है, पैसे ही माल है
पैसे न हो तो आदमी चर्खे की माल है"
“आगरा बाजार” की यह नज्म आज भी हमारे समाज की जीवनशैली की ओर इशारा करती है। हम सबका पहला उद्देश्य पैसे कमाना होता है। चाहे समाज में अमीरी का ताज बसा हो या फिर गरीबी की जंजीरें, हर व्यक्ति की यही आवश्यकता होती है कि वह पैसा कमाए। हमारे चारों ओर ऐसी कई घटनाएँ होती हैं, जिन्हें हम बिना सोचे-समझे गुजार देते हैं, परंतु कुछ व्यक्तियों का संकल्प समाज को सुधारने और जागरूकता फैलाने की दिशा में होता है - और एक ऐसे महान व्यक्तित्व का नाम है - हबीब तनवीर।
1 सितम्बर, 1923 को छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले में जन्मे हबीब तनवीर भारतीय रंगमंच के प्रसिद्ध कलाकार थे। उनकी स्कूली शिक्षा रायपुर और बी.ए. नागपुर के मौरिस कॉलेज से हुई। उन्होंने अपनी नौजवानी के दिनों में ही कविताएँ लिखना शुरू किया और उनका उपनाम 'तनवीर' था, जिसने उन्हें ‘हबीब तनवीर’ के नाम से मशहूरी दिलाई।
सन् 1945 में, वे मुंबई आए और ऑल इंडिया रेडियो में प्रोड्यूसर के रूप में काम करने लगे। उसी दौरान, उन्होंने कुछ फ़िल्मों के गीत लिखने के साथ-साथ अभिनय भी किया।
बरसों की काविस और तलाश का स्वरुप “आगरा बाज़ार” नाटक हबीब तनवीर जी का महशूर नाटक है जो की ग्रामीणो, कस्बाती और शहरी अदाकारों के साथ मिलकर 14 मार्च 1954 को ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ के कला विभाग के खुले मंच पर प्रस्तुत किया गया था। हास्य रास से भरपूर यह नाटक भारत की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक समस्याओं का बखूभी चित्रण करता है।
हबीब तनवीर जी द्वारा लिखी गई ऐसी अनेक सुनहरी रचनाएँ हैं जो आम जनमानस को नाटक के करीब लाने का प्रयत्न करते रहे थे । अतः उन्हें लोक संस्कृति, लोकजीवन में रच-बस कर एक अलग दृष्टि को विकसित करने का प्रयास किया है। “आगरा बाजार” उसी नई दृष्टि का परिणाम है।
उनकी रचनाओं में शामिल - शतरंज के मोहरे, लाला शोहरत राय , मिट्टी की गाड़ी , गाँव का नाम ससुराल हमार नाम दामाद , हिरमा की अमर कहानी उत्तर रामचरित, पोंगा पण्डित, जिन लाहौर नहीं देख्या, कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना, द ब्रोकन ब्रिज, जहरीली हवा , राज रक्त आदि एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण स्थान रखतें है।
रंगमंच की इस 50 वर्षों की लम्बी यात्रा में तनवीर जी ने 100 से भी अधिक नाटकों का मंचन किया। मशहूर लेखक और नाट्य निर्देशक होने के साथ -साथ उनकी खूबियों में अभिनेता, गीतकार, कवि, व संगीतकार होना भी उन्हें हिंदुस्तान का प्रतिष्ठित व्यक्ति का दर्जा देता है।
“जन-मानस के बहुत से किरदार मंच से सिनेमा के पर्दे तक का बीहड़ तय सफ़र नहीं कर पाए और अब क़िताबों में पड़े ख़ाक होने की राह देखते हैं”
हबीब तनवीर के जीवन ने रंगमंच के संसार को जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गरिमा प्रदान की, उसे हम भुला नहीं सकते। उनका रंगकर्म उनकी ज़मीन से गहरी जड़ों में लिपटा हुआ प्रतिभा का परिणाम है। ऐसा लगता है कि वे कभी भी इस ज़मीन से अलग नहीं हुए हैं, और हमेशा-हमेशा लोक-संस्कृति के इस विशेष क्षेत्र में समर्पित रहे हैं। हालांकि, जब हम उनकी विशेषज्ञता के परिणामस्वरूप रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स, अर्थात् राडा इंग्लैंड से प्रशिक्षित इन कलाकारों के काम की ओर देखते हैं, तो हमें आश्चर्य होता है।
यह बात यही सीमित नहीं रहती, बल्कि उनका परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण बहुत आगे तक फैलता है। वे ब्रिस्टल ओल्ड विक थियेटर स्कूल में निर्देशन की जिम्मेदारी उठाते हुए लगभग तीन सालों तक यूरोपीय थियेटर की नाटकीय नौकरियों की विशेषताओं को भी मास्टर कर लेते हैं , परंतु जब वे अपने देश की मिट्टी पर आकर किरदारों के संगीत से खेलते थे, तो उन्हें निरंतर अभिनेताओं की आवश्यकता नहीं होती थी। उन्होंने जो लोक के जीवन को नाटक में पेश किया, उसका प्रतिनिधित्व करने के लिए सामान्य लोग भी अभिनेता बन जाते थे।
“नाटक हर बार नए रूप में हमारे सामने मंच पर जिन्दा होता है इसलिए जो देखे जा चुके है बार बार देखा जा सकते है”
छठवें दशक की शुरुआत में नई दिल्ली में हबीब तनवीर जी की नाट्य संस्था ‘नया थियेटर’ की स्थापन हुई थी। वे उस समृद्ध लोक जीवन को जो रंगमंच पर उकेरते थे, वही जनसामान्य लोग उनके अभिनेता के रूप में उभरते थे। हबीब तनवीर के भरपूर रंगीनता और मौलिकता ने उन्हें रंगमंच के क्षेत्र में हमेशा के लिए आबाद बना दिया । हां, यह सच है कि उन्हें आज उस प्रकार से याद नहीं किया जाता परन्तु सामान्य लोगों के बीच, हबीब तनवीर की कला जीवंत है जैसे वे आज भी हमारे बीच हैं। वे उन लोगों की आत्मविश्वास और संवाद की कला को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिनके पास आज भी भारीतय थिएटर यानी रंगमंच की समझ हो।
“हमारी अपने देश की मिट्टी में कहने के लिए इतनी कहानियां है कि पहेले वो तो कहली जाएं फिर हम पश्चिम के भी दुःख सुनगे”
उनकी नाट्य प्रस्तुतियों में लोकगीतों, लोक धुनों, और लोक संगीत का सुंदर प्रयोग सर्वत्र पाया जाता है। उन्होंने कई वर्षों तक देश भर के ग्रामीण क्षेत्रों में घूम-घूमकर लोक संस्कृति और नृत्य शैलियों का गहन अध्ययन किया और लोक गीतों का संकलन भी किया। उनकी रचनाएँ एक आकर्षित लहजे में प्रस्तुत होती थीं, जो दर्शकों को गहरी भावनाओं में ले जाने में हमेशा सफल रहा। आज जिस दिन हमारे प्रिय हबीब तनवीर जी का जन्मदिन है, हम सभी मिलकर उन्हें आभारी भाव से याद करते हैं और उनका सादर सम्मान करते हैं।
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