यात्रा कभी-कभी हमें अनगिनत जीवन की कहानियों से जोड़ने का अवसर प्रदान करती है। यह एक खासियत है कि हम यात्रा के दौरान अनजान लोगों, स्थानों और समाज के विभिन्न पहलुओं को देखते हैं और उनसे सीखते हैं। लेखक कृष्णा कुमार अपनी कुछ छात्राओं के साथ फरीदाबाद की संक्षिप्त यात्रा करते हैं। इस यात्रा से वह इतना प्रभावित होते है कि वह इस पर एक किताब की रचना कर डालते हैं।
लेखक कृष्ण कुमार की किताब 'चूड़ी बाज़ार में लड़की' भी फरीदाबाद की एक यात्रा का संस्मरण है इस किताब की रचना हमें भारतीय स्त्री की सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं को समझने का मौका देती है।
समाज में हम अक्सर अपने जीवन के विभिन्न चरणों में रहते हैं, और हमारी जीवनशैली और अनुभव भी उन चरणों के हिसाब से रूपांतरित होते रहते हैं। कभी हम अपने बचपन की मस्ती और खुशियों के चरण में होते हैं ,तो कभी हम अपने किशोरावस्था में आने पर शिक्षा के माध्यम से अपनी क्षमताओं को विकसित करने में लग जाते हैं। कई बार परम्पराएँ रूढ़ियों का रूप धारण कर लेती है , और अक्सर हम इन बातों का भान नहीं कर पाते हैं। जब हम आसपास की घटनाओं को सामान्य देखने लगते हैं, तो हमें समाज में किसी प्रकार के व्यवहार और बातों का किसी के जीवन में क्या प्रभाव पड़ता है, इसमें कम ही रुचि नजर आती है।
‘चूड़ी बाज़ार में लड़की' पुस्तक हमें स्त्री के समाजिक, सांस्कृतिक, और नैतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं की गहरी जांच करने का मौका प्रदान करती है। लेखक इस किताब में स्त्री की जीवनशैली के अनगिनत पहलुओं को खोलकर दिखाते हैं। गौरतलब है कि एक साधारण स्त्री भी अपने अस्मिता को समझने में बहुत समय लगा सकती है।
समाज में स्त्री की भूमिका का दृष्टिकोण हमें अक्सर समाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही दिखता है। इस किताब के माध्यम से हमें स्त्री के जीवन के विभिन्न पहलुओं की मीमांसा करने का मौका मिलता है, जिससे हम उनके अंदर के व्यक्तिगत और नैतिक संघर्षों को समझ सकते हैं।
यह किताब हमें दिखाती है कि हमारें बचपन में हमें जो शिक्षा और संस्कार मिलते हैं , उसी से हमारा नज़रिया तय होता है। इसी का नतीजा है कि पुरुष, स्त्री के प्रति असंवेदनशील रवैया अख्तियार करता है।
आये दिन हम सुनते रहते हैं कि स्त्री का सबसे पहला काम है कि घर का चूल्हा संभाले ; घर के काम-काज में हाथ बटाएं और खुद को एक नियमित प्रकार से तैयार दिखाने में व्यस्त रहें । इस प्रक्रिया का उद्देश्य समाज में स्त्री की भूमिका को सुनिश्चित ढांचे में रखना होता है, जिससे उनका व्यवहार समाज के मानकों के अनुसार बने और उनकी आदर्श-सभ्य छवि बनी रहें ।
एक जुमले का रूप ‘नारी जीवन की व्यथा’
इस पुस्तक में लेखक ने कुछ प्रमुख और प्रभावी साहित्यकारों की रचनाओं का उल्लेख किया है। जो स्त्री के सम्बोधन के विवेचन के लिए महत्तवपूर्ण है। इन रचनाओं में स्त्री की भूमिका और समाज में उनका स्थान बड़े ही अनोखे तरीके से पेश किया है। इसे समझने के लिए हमें भारतीय समाज की परंपराओं और विचारधाराओं कि तह तक पहुँचना होगा ।
साहित्यकारों की इन रचनाओं में स्त्री सम्बोधन के विभिन्न आयामों का ज़िक्र किया है। जिनमें लेखकों ने सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक मूल्यों, और समाज की भूमिका को अपने काम के माध्यम से प्रस्तुत किया है । लेखक ने अपनी किताब में बताया गया कि स्त्री के सम्बोधन का अर्थ उनके जीवन और समाज के साथ कैसे जुड़ा होता है और उनकी भूमिका को कैसे पेश किया जाता है।
नारी वेदना की सामाजिक निर्मिति का विश्लेषण करते हुए लेखक बताते हैं कि किस तरह महादेवी वर्मा की गद्य कृति ‘ शृंखला की कड़ियाँ’ और उनके काव्य को नारी वेदना का शास्त्र बनाना भी उनसे जुड़े हुए दर्द की समीक्षा से ही हो पाया है। महादेवी ने स्त्री जीवन को ‘जन्म से ही अभिशाप, जीवन से संतप्त’ बताया है। जन्म से मृत्यु तक फैले इस नकारात्मक जीवन चक्र के मध्य स्त्रियों को बचपन से ही एक अच्छे वर की खोज में कई मानसिक सीढ़ियों से गुजरना होता हैं।
स्त्री का जीवन केवल निर्भर हो के ही जिया जा सकता है। इस दौड़ में स्त्री, पुरुष को आकृष्ट करने के लिए अपनी सौंदर्यता को बनाये रखने में बचपन से समर्पित रहती हैं । इसकी मान्यता के लिए कोई प्रमाण की दरकार नहीं होती। इस तरह के तर्क का वैज्ञानिक प्रमाण कभी नहीं दिया जाता क्योंकि प्रमाण हो भी नहीं सकता। समाज के प्रभाव से अलग रखकर कोई बच्ची बड़ी हो ऐसा कैसे संभव है ?
आधुनिक साहित्य की इस कड़ी में पहले भी कई लेखकों ने अपने साहित्य के जरिये स्त्री की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति का वर्णन किया है। मैथली शरण गुप्त की मशहूर पंक्ति " अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी " से प्रेरित होकर, लेखक इस पंक्ति को अपनी पुस्तक में उद्धृत करते हैं। यह पंक्ति दर्शाती है कि स्त्री का दर्द उसके शरीर और शरीर की प्राकृतिक उपयोगिता में ही सीमित है। इस पंक्ति में ‘हाय’ शब्द का प्रयोग करना ही उसके जीवन की संपूर्ण यात्रा आँचल से आँखों के बीच सिमट जाने की व्यथा को अभिव्यक्त करने में पर्याप्त है।
मैथलीशरण द्वारा लिखी इस पंक्ति की लोकप्रियता को लेखक इस तरह दर्शाते है कि स्त्री के जीवन में प्रसव का दर्द और संघर्ष उनके लिए कितना महत्त्वपूर्ण होता है। प्रसव के समय, स्त्रियों को आमतौर पर एक अलग कमरे में रखा जाता है, जहां केवल स्त्रियों का प्रवेश और निकास होता है, और उनके साथ उनकी आँचल के अंदर का अंधेरा और गंदगी का अनुभव भी होता है। इस पंक्ति के माध्यम से, लेखक समाज में स्त्री के प्रसव के समय के दर्द और असमानता को सुझाते हैं, और यह भी दिखाते हैं कि कैसे यह प्रक्रिया उनकी सामाजिक छवि का अनिवार्य हिस्सा बनती है।
“ खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी ” सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखी इस कविता का ज़िक्र करते हुए कृष्णा कुमार पुस्तक में यह दर्शाते हैं कि लक्ष्मीबाई को मर्दानी की संज्ञा देने का आशय यह था कि उनका जीवन और बच्चियों की तुलना में बहुत अलग रहा था।
“ बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी ” और “ सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़ ” जैसी पंक्तियों के माध्यम से यह इंगित किया जाता है कि लक्ष्मीबाई का जीवन एक मरदाना जीवन था।
भारतीय परम्पराओं के अनुसार पति की मृत्यु के बाद स्त्री का चूड़ी तोड़ना और विधवा जीवन व्यतीत करना सामान्य बात है। सुभद्रा कुमारी चौहान इस प्रश्न को रेखांकित करते हुए “तीर चलने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाईं ? ” जैसी पंक्तियों का उल्लेख करने से अभिप्राय करती हैं कि लक्ष्मीबाई के पति की असमय मृत्यु होने के बाद भी उन्हें समाज की इस चूड़ी तोड़ने की रस्म से न गुजरना एवं स्त्री जाती में अपवाद बनकर ही उन्हें चूड़ियों के प्रतीकार्थ से मुक्त कर सका ।
सिनेमा और गीतों में स्त्रियों का चित्रण
हमारे समाज में स्त्री के शोषण की व्यवस्था: एक सबक के रूप में समाज और उसके राजनीतिक तंत्र के द्वारा स्वीकृत है, भले ही वैधानिक अनुमति न हो । इस मान्यता में स्त्री के शोषण के सभी रूपों को शामिल किया जाना चाहिए, जैसे कि नंगी तस्वीरों का प्रकाशन, पोर्नोग्राफी की शैली में बनाई गई फिल्में और सौंदर्य प्रतियोगिता का आयोजन भी इसी प्रकार के शोषण का साधन है।
लेखक, फिल्म के इस जगत को अपनी पुस्तक में इस तरह चित्रित करते हैं कि मुख्य तौर पर सिनेमा का उपभोग करने वाले पुरुष, विचार करते हैं कि वे सामाजिक भूमिकाओं से मुक्त नारी को अपने नियंत्रण में रख सकते हैं। सिनेमा जगत में नारी को एक वस्त्र में बदलने की कल्पना के माध्यम से, पुरुष अपनी सत्ता का परीक्षण करते हैं और समाजिक भूमिकाओं के तहत नारी को वास्तविक जीवन में नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। इस तरह वह अपराध-भाव से मुक्त हो जाते है।
लेखक द्वारा नारी के शोषण के इस आखिरी सिरे को बलात्कार बताया है, जिसे वैधानिक रूप से अपराध माना जाता है। वास्तविक जीवन में एक सामान्य घटना बन गया है। इसके अलावा, यह बताती है कि सिनेमा और वीडियो खेलों में इसकी उपस्थिति इतनी व्यापक है कि हम किशोर अवस्था में आने से पहले ही इन सब से परिचित हो जाते हैं।
‘ थ्री इडियट्स ’ फिल्म- जिसे सरकार ने शैक्षिक फिल्म का दर्जा दिया और जिसके लिए आमिर खान को अलंकृत किया गया - में चमत्कार शब्द की जगह बलात्कार का इस्तेमाल कथानक और दर्शकों में हास्य का संचार करने के उद्देश्य से किया गया है।
स्त्री के सौंदर्यबोध की मीमांसा करने के लिए लेखक एक लोकगीत का विश्लेषण करते है जिसे एक प्रसिद्ध फ़िल्म में इस्तेमाल किया गया है। यह गीत है - ‘ चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया।’ इस गीत में, एक छोटी सी चिड़िया का चरित्र है जो पिंजरे में बंद है। गीत के भाव में चिड़िया को स्त्री के रूप में वर्णिंत किया गया है। गीत में स्त्री के मुक्त रूप का चित्रण किया गया है जिसके कारण पुरुष दुकानदारों के दिलों में स्त्री पर कब्ज़ा पाने की फन्तासी उत्पन्न होती हैं, बिलकुल उसी तरह जैसे आज की दुनिया में पॉपुलर पोर्नोग्राफिक सामग्री एक पुरुष के मन में उत्कृष्ट इच्छाएँ पैदा करती है लेकिन उसे हासिल कर पाना संभव नहीं।
‘तीसरी कसम’ के इसी गीत की तरह हम ‘पाकीज़ा फ़िल्म’ में इस्तेमाल किए गए एक अलग लोकगीत में नारी की मुक्त रूप का चित्रण पाते हैं। इस गीत में दुपट्टे का रूपक स्त्री की शुद्धता के प्रतीक की तरह प्रयोग किया गया है। गीत के बोल हैं- ‘इन्ही लोगों ने ले लिना दुपट्टा मेरा।’ वह बताती है कि उसका दुपट्टा किसी व्यक्ति ने उससे छीना है और अगर कोई इसे नहीं यकीन नहीं होता तो उसके दुपट्टे को खरीदने और छीनने वालों से पूछ सकते हैं। लेखक के शब्दों में बाज़ार वह जगह है जहाँ एक स्त्री समाज में व्याप्त पारंपरिक भूमिकाओं के जाल से आजाद कर दी गई अवस्था में घूम रही है। यह दोनों गीत एक मुक्त स्त्री को उस सुरक्षा कवच से वंचित करता है जो उसे विवाह, मातृत्व और परिवार से मिलता है। बाज़ार में उसकी सुरक्षा का अभाव ही पुरुष को आनंद देने वाली फन्तासी का आधार है।
‘तेरी चाल शराबी’ जैसे मुहावरे, ‘गजगामिनी’ जैसे रूपक, ‘तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त’ या ‘अमिया से आम हुई’ जैसी पंक्तियाँ मनोरंजन के माधयम से स्त्री की एक ऐसी छवि का प्रदर्शन करती हैं जिससे ये सारी बातें सामान्य प्रतीत होती हैं। लेखक के अनुसार सिनेमा जगत में बनी फ़िल्मों के ऐसे कई गीतों का चित्रण लड़कियों के जीवन को एक बने बनाये सांचे में ढ़ालने के उद्देश्य से किया जाता है।
स्त्री की मानसिक स्वतंत्रता को व्यवस्थित ढंग से नष्ट करने में इतिहास का योगदान
भारीतय समाज में लड़की का विवाह होने को एक महत्वपूर्ण दर्जा दिया गया है। विवाह के लिए जरूरी योग्यताओं और गुणों को प्राप्त करने और विवाह की राह में बाधा बनने वाले चीज़ों से दूर रहना उन्हें एक सफल स्त्री बनाता है। वहीं दूसरी ओर जो स्त्री विवाहित अवस्था में नहीं है, वह अंततः स्वतंत्र होने के नाते ‘निराश्रित’ की संज्ञा पाती है।
लड़कियों को पराया धन मानना या पिता का घर देर - सवेर छोड़ना लड़की की नियति का अंग है। वह अगर अविवाहित अर्थात अकेली रह गई तो भले वो शिक्षित हो या आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन जाए पर सांस्कृतिक लोकमानस में उसके लिए निराश्रित की श्रेणी ही उपयुक्त मानी जाएगी।
अविवाहित होने का संदर्भ समझाते हुए, कृष्ण कुमार निराश्रित स्त्रियों के लिए जनमानस में उपलब्ध दो हिस्सों का उल्लेख करते हैं। पहला हिस्सा वह होता है जो निराश्रित रिश्तेदारी के तहत किसी परिवार में शरण लेती है, जिसे सौतन की छवि का रूप माना जाता है। दूसरी कोटि में वह निराश्रित स्त्री है जिनकी भूमिका किसी एक पुरुष की संपत्ति बनी और ‘रखैल’ कहलाईं, और दूसरी वे जो कई पुरुष की पहुंच में आई, अतः ‘वैश्या’ कहलाईं।
सौतेली माँ की अवधारणा विश्व्यापी है और उसके व्यवहार को दुनिया भर की लोककथाओं में एक ही रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस व्यवहार को प्राकृतिक मानाने की पृष्ठभूमि में हजारों वर्षों के उस इतिहास का योगदान है जिसमें स्त्री को पुरुष की अनुगामिनी बनाया और उसकी मानसिक स्वतंत्रता को व्यवस्थित ढंग से नष्ट किया गया।
कैकेयी के व्यवहार का उदाहरण रामायण जैसे महाकाव्य के माध्यम से सौतन का स्थायी उदाहरण बन सकता है। इस उदाहरण से समझ में आता है कि पितृसत्ता की परंपरा में स्त्री की अपनी महत्वकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मातृत्व का माध्यम उपलब्ध था। उसके जीवन का उद्देश्य और मूल भाव मातृत्व के परिपाटी के रूप में बदल गए थे, और जिन स्त्री के जीवन में मातृत्व का सौभाग्य नहीं था, वह दुद्रेव की शिकार मान ली गई।
जाति व्यवस्था और स्त्री के सम्बन्ध में भारतीय समाज का मानसिक दृष्टिकोण इतना कम बदला है कि महाभारत, रामायण और अन्य पौराणिक कथाओं में दिखाए गए धार्मिक विश्वासों के चित्र अब भी प्राथमिक रूप से समझे आते हैं। यह सत्य है कि किसी धर्म और उसके विश्वासों को कुछ कथाओं से जोड़ सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह संबंध लगातार दैनिक जीवन में हमें निरंतर प्रभावित करते हैं, विशेषत: भौतिक आवश्यकताओं को। सीता का अपहरण या द्रोपदी के वस्त्र को खींचकर अलग करने की तरह कुछ घटनाएं आज भी होती हैं और इनके कारण महिलाएं अपने साथ ऐसी हो रही घटनाओं के डर में जीती हैं।
चूड़ी का चिन्हशास्त्र और अभिमन्यु की शिक्षा
‘चूड़ी बाजार में लड़की' पुस्तक की विशेषता यह भी है कि इसमें स्त्रीयों से संबंधित हर एक वस्तु को महत्व दिया गया है। यह कान और नाक, हाथ और कलाई, और अन्य शरीर के अंगों का विवरण करता है, साथ ही उनके साथ जुड़े आभूषणों को भी उचित ढंग से दर्शाता है। स्त्री की देह पर गहने समाज द्वारा उनकी सांस्कृतिक भूमिका को दर्शाने का काम है, और पुरुष सत्ता की अपनी अभिव्यक्ति और अक्षुण्णता के लिए इसे प्रयोग करते हैं।
चूड़ी का चित्र शास्त्र करते हुए लेखक क्या बताते हैं ? चूड़ी एक ऐसी वस्तु है जो दो ही अवस्थाओं में रह सकती है संपूर्ण या खंडित कांच के अन्य वस्तुएं जैसे गिलास से तस्वीर का फ्रेम चटक जाए तो भी दरार के साथ बनी रह सकती है चूड़ी के साथ ऐसा नहीं है। भाई यदि पहने जाते वक्त खिंच गई तो टूट जाती है टूटी हुई चूड़ी सिर्फ फेक जाने योग्य रह जाती है उसका स्थान दूसरी चूड़ी को लेना होता है। चूड़ी के अस्तित्व का यह ध्रुवीकृत जीवन उसके पहने जाने के क्षण में जितनी स्पष्ट सबसे व्यक्त होता है उतना फिर कभी नहीं पहनी हुई चूड़ियों में से कोई चूड़ी कभी किसी बर्तन या दीवार से टकरा जाए तो अपशगुन माना जाता है और उसका एहसास कराया जाता है पहनते समय चूड़ी के चटक जाने का भाव बहुत गहनता से करने के लिए भाषा ही मदद की जाती है और लड़की को कहा जाता है कि टूट गई मत बोलो मॉल गई बोलो क्योंकि टूटने में थोड़ी जाने के बाद निहित है जो विधवा हो जाने से जुड़े संस्कार का बोध कराता है।
कृष्ण कुमार जो की दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है, वह इस पुस्तक में फरीदाबाद की यात्रा करते हुए अपनी साथ आई छात्रओं का उल्लेख करते हुए वह हमारे सामने फरीदाबाद की भीषण गरीबी, और काँच उद्योग की विकराल परिस्थितियों में बच्चों का वहाँ काम करना हमारे मन पर कठोर प्रहार करता है।
“वहां सबसे पास में बैठी हुई बच्ची अपनी उर्दू की किताब से स्वयं कुछ पढ़ रही थी। मैंने जानना चाहा कि यह पाठ किस बारे में है तो उसने बताया कि वह अल्लाह से दुआ माँगने की कहानी है। बगैर किसी निश्चित प्रतिक्रिया की अपेक्षा किए मैंने पूछा अगर तुम्हें कहीं अल्लाह मिले तो तुम उनसे क्या जानना चाहेगी ?”
“उसे बच्ची ने मेरी और देखते हुए कहा, ‘मैं पूछूंगी आपने मुझे इतनी गरीबी में क्यों पैदा किया।’ इतना कहते-कहते उसकी आंखों से आंसू गिरने लगे। मैं अवाक् देखता रहा और उसका सर नीचे की तरफ चुका होने से आंसू टप-टप की आवाज करते हुए सीमेंट के फर्श पर गिरते रहे।”
लेखक बतातें हैं कि उस शाम हम लोगों ने जाना कि इन बच्चों की चूड़ी के दो किनारे मोमबत्ती की लव में रखकर छोड़ने के लिए हजार चूड़ियों पर ₹20 मिलते हैं। यह काम वह आठ नौ घंटे करते हैं उसके बाद यहां इस कक्षा में आते हैं।
कृष्ण कुमार अपनी पुस्तक के अंतिम अध्याय में बताते हैं कि साहित्य में कविता, नाटक, और कहानियों के माध्यम से स्त्री की गरिमा का उल्लंघन करने वाले प्रसंगों को पहचाना जाना चाहिए। उनके साहित्यिक महत्व का मूल्यांकन करना महत्वपूर्ण है। अभिमन्यु की गाथा को स्त्री शिक्षा से जोड़कर वे इस प्रक्रिया के माध्यम से शिक्षकों को अपने संशय और साहित्यिक परंपराओं के प्रति जागरूक होने का सामना करना कहते हैं। अभिमन्यु की शिक्षा इस प्रक्रिया के माध्यम से इन चुनौतियों का सामना करने में आगे बढ़ सकेगी।
लेखक के विचारों में पुस्तक की शुरुआत में व्यक्त किया गया दृष्टिकोण बिल्कुल सही बैठता है। 'श्रृंखला की कड़ियाँ' और 'चूड़ी बाज़ार में लड़की' जैसी पुस्तकें वास्तविकता में व्यक्तिगत अनुभवों, सामाजिक दृष्टिकोणों, और लिंग भावनाओं को समझने का मौका प्रदान करती हैं, और इसमें व्यक्तिगत परिपर्णता का एक प्रमुख हिस्सा होता है। इसलिए, इन पुस्तकों को पढ़ते समय, आप निश्चित रूप से खुद को केवल एक पाठक नहीं मानते, बल्कि आप उन्हें अपने व्यक्तिगत अनुभवों और सोच के माध्यम से देखते हैं, और इससे आपकी जागरूकता और विचारशीलता बढ़ती है। यही पुस्तकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है - व्यक्तिगत और सामाजिक दृष्टिकोण को मिलाकर समझने में मदद करती है ।
किताब को पढ़ना खुदी में एक यात्रा तय करना है। ‘चूड़ी बाज़ार में लड़की’ पुस्तक हमें स्त्रियों की सामाजिक , सांस्कृतिक और नैतिक व्यवस्था में उनकी जीवन यात्रा का बोध एक अद्वित्य रूप से प्रदर्शित करती है।
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