वादियों में बसा एक सुनहरा अंचल...

पिछले कुछ दिनों से मैं हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के एक गांव में थी। गांव का नाम बाग है जोकि पांगाना ग्राम पंचायत में आता है। गांव अपने नाम पर पूरी तरह से खरा उतरता है। प्यारा गांव है। बिलकुल मेरे अपने गांव के जैसा।

गांव के लोगों से बात करने पर पता चला कि यहां प्राकृतिक और जैविक खेती भी की जाने लगी है। सेब यहां की मूल कैश क्रॉप है। फल-सब्जियां भी उगाई जाती हैं। यहां की अर्थव्यवस्था अधिकतर खेती पर ही निर्भर है।

खेतो में लगे सेब के पेड़
विदेशी फसलों की खेती
सेब को बचाने के लिए लगाए गए एंटी हेलनेट

हर क्षेत्र की अपनी एक संस्कृति और परंपराएं होती है।पांगणा गांव में भी आपको भारतीय संस्कृति के शिल्पकार मिलेंगे।

विशेष करके लोहार, कुम्हार और बासं के काम को आप यहां होते हुए देख सकते हैं। इन सभी शिल्पकलाओं को संरक्षित और प्रोत्साहन देना एक अहम मुद्दा है। लेकिन शिल्पकारों का कहना है कि हिमाचल सरकार द्वारा इस काम को आगे लाने के लिए कुछ खास प्रयास नहीं किया गया है। शायद यहीं कारण है कि गांव के लोग भी इस काम में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखते हैं जिससे इस पेशे के विलुप्त होने का खतरा बन रहा है।

कुम्हार इंदरलोक घड़ा बनाते हुए
मिट्टी के घड़े
लोहार देवी राम जी औजार बनाते हुए
तुला राम जी, बांस के कारीगर

मैदानी इलाकों में रहने वाले अधिकांश लोगों के लिए पहाड़  प्राकृतिक सौंदर्य से भरी जगह मात्र है। लेकिन, यहां भी समस्याएं कम नहीं हैं।

पिछले काफ़ी समय से गांव में प्लास्टिक का इस्तेमाल अधिक मात्रा में हो रहा है। ऐसे में पहाड़ों में प्लास्टिक कचरे का जमाव लगातार बढ़ रहा है।

प्लास्टिक कचरे का दहन
प्लास्टिक से बनी डोका का उपयोग करती महिला

जलवायु परिवर्तन के कारण गर्मी बढ़ रही है। इसके कारण पानी के स्रोत सूख रहे हैं। फल सब्जियों के लिए अगर समय पर बारिश ना हो तो किसानों को भारी नुकसान भी उठाना पड़ता है।

सिंचाई के लिए बनाई गई नालियां

गांव में अक्सर महिलाओं पर बहुत सी जिम्मेदारियां होती हैं। सुबह से शाम तक आपको वह अपने काम में व्यस्त नजर आएंगी। जब मैंने गांव की महिलाओं से बात की तो एक बात जो सामने आयी वह यह थी कि माहवारी के समय उन्हें घर से बाहर अलग ठिकाने में रहने के लिए भेज दिया जाता है। इस दौरान वह चूल्हे के आस -पास भी नहीं जा सकती हैं। जैसे कि अक्सर होता है कुरीति धर्म की आड़ ले लेती है; इस कुरीति में भी यही तर्क दिया जाता है कि घर में आने से देवी-देवता नाराज़ हो जाते हैं।

झुंगी गांव में महिलाओं के लिए माहवारी के दौरान अलग से बनाया गया कमरा

इन सभी कठिनाइयों के बावजूद भी गांव की महिलाएं और लोग आपकी हर प्रकार से मदद करने को तैयार रहते हैं। मैंने ये खुद अनुभव किया है। उनके पास भले ही शहर के ठाट-बाठ न हो पर वह प्रकृति के सबसे करीब हैं।

पहाड़ों की समझ, गांव की परिस्थितियों की जानकारी, प्रकृति की रक्षा, और नई पीढ़ी में इन मुद्दों के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना ही एक बेहतर समाज की परिकल्पना है।

गांव के आसपास की पहड़िया

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