भारत क्रिकेट प्रेमियों का देश है। क्रिकेट को चाहने वालों की अच्छी-खासी संख्या हिंदुस्तान में रहती है। जब क्रिकेट का मैच होता है तब लाखों दर्शक अपने काम-काज को छोड़कर अपने चहेते खिलाड़ी, पसंदीदा टीम के बढ़िया प्रदर्शन की ख्वाहिश लेकर मैच देखते हैं। हाल के दिनों में तो यह फितूर अपने परवान पर चढ़ा हुआ है। क्योंकि 'विश्व कप' के लिए विश्व की प्रमुख 'पुरुष' टीमों के बीच प्रतिस्पर्धा चल रही है।
बहरहाल मुद्दा यह है कि दर्शकों के मन-मष्तिष्क पर जिस दर्जे की खुमारी अब छाई हुई है, क्या वैसी ही दीवानगी महिला टीमों के बीच होने वाले मुकाबलों के दौरान देखी गई ? एक आम क्रिकेट प्रेमी को कितनी महिला क्रिकेट खिलाड़ियों के नाम याद हैं ? मीडिया में जितनी सुर्खियाँ पुरुषों का मैच बटोरता है क्या उतनी जगह महिला खिलाड़ियों को मिलती है ? अगर नहीं मिलती है तो क्यों ? क्या खेल के मैदानों में भी पितृसत्ता धंसी हुई है ? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए अतीत में जाना होगा। तभी पूरी तसवीर स्पष्ट होगी।
क्रिकेट: पुरुषों का खेल
करीब 500 बरस पहले की बात है। इंग्लैंड के गाँवों में गेंद और डंडों से कई खेल खेले जा रहे थे। क्रिकेट का जन्म इन्हीं से हुआ. इस खेल में दो तरह के खिलाड़ी खेलते थे। पहले, अमीर खिलाड़ी; जो मौज-मस्ती के लिए खेलते थे। दुसरे प्रकार में रोजी-रोटी के लिए खेलने वाले पेशेवर खिलाड़ी आते हैं। महिलाओं के लिए इस खेल में कोई जगह नहीं थी। क्योंकि लड़कियों के लिए व्यायाम अच्छा नहीं माना जाता था। क्रिकेट के प्रतिस्पर्धी स्वरूप को भी आधार बनाकर महिलाओं को इस खेल से दूर रखने की कोशिश की जा रही थी।
महिलाओं के लिए क्रोकेट
क्रोकेट आराम से खेला जाने वाला खेल था. कुलीन वर्ग की महिलाओं के लिए अच्छा माना जाता था। महिलाएँ भारी वस्त्रों को पहनकर खेलती थीं। लेकिन, जहाँ एक और समानता और लोकतंत्र के विचारों को सैद्धांतिक रतौर पर अपनाया जा रहा था वहाँ लम्बे समय तक महिलाओं को किसी खेल से दूर रख पाना नामुमकिन था।
इंग्लैंड में 1890 के दशक आते-आते लडकियाँ क्रिकेट में हाथ आजमाने लगी थीं
गोरे अधिकारी अपने साथ खेल को उपनिवेशों में लेकर गए। लेकिन, इस खेल को खेलने का सम्पूर्ण अधिकार अपने पास रखा। गोरे लोगों को देख हिंदुस्तान के अभिजात वर्ग में भी खेलने की तलब मची। जिसके जरिये वो खुद को अंगरेजों के बराबर स्थापित कर सके। ऐसे में आम आदमी क्रिकेट नहीं खेल पा रहा था।
धीरे-धीरे भारतीयों के द्वारा टीमों का गठन किया जाने लगा। और कई बार तो अंगरेजों को हरा दिया। गौर करने वाली बात यह है कि आम भारतीयों की जीत रही थी परन्तु वो मर्दों की टीम थी। लड़कियाँ अभी तक खेल का हिस्सा नहीं बन पाई थी। ऐसे में खेलों को भी लिंग के आधार पर बाँट दिया था। पुरुष का खेल और औरत का खेल। लड़कियों को एक खेल से पूरी तरह से दूर रखा गया।
आपने आशुतोष गोवरिकर द्वारा निर्देशित लगान फिल्म देखी होगी। उस फिल्म में सभी पुरुषों को खेलते हुए दिखाया है। वहीं महिलाएँ केवल दर्शक बनकर खड़ी हैं।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि ब्रिटिश राज के दौरान भारत में क्रिकेट टीमों का गठन धर्म के आधार पर होता था। इसका सबसे बड़ा खामियाजा महिलाओं और दलित वर्ग के लोगों को भोगना पड़ा। लगान फ़िल्म में 'कचरा' नाम का किरदार दलित जाति का प्रतिनिधित्व कर रहा था।
भारत की आज़ादी और खेलों का वि-औपनिवेशीकरण
क्रिकेट को फिरंगियों ने भारत में लाया था। लेकिन, जब वो लौट रहे थे यानी आज़ादी के समय क्रिकेट का लोकतंत्रीकरण नहीं हुआ था। तब क्रिकेट पर खास लिंग (पुरुष) के खिलाड़ियों का कब्ज़ा था।
सन् 1976 में भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने अपना पहला मैच खेला था। उम्मीद की कुछ किरणें फूटने वाली थी उससे पहले मीडिया ने नई चुनौतियाँ खड़ी कर दी।
खिलाड़ी टीवी पर आने लगे। वो अब सेलेब्रिटी बन गए थे. कम्पनियाँ उनसे विज्ञापन करवाने लगी। उनके नाम के टी-शर्ट बाज़ार में आने लगे। गाँव-कस्बों में बैठे युवा इन खिलाडियों के जैसा बनने का सपना देखने लगे।
जो महिला खिलाड़ी संघर्ष कर रही थीं, मीडिया की इस चकाचौंध ने उस संघर्ष को और कठिन बना दिया। क्योंकि अब हर दर्शक के दिमाग में यह बिठा दिया गया कि क्रिकेट बोले तो आदमियों की मण्डली। और पितृसत्तात्मक समाज ने पुरुष खिलाडियों को आसानी से स्वीकृति भी दे दी।
भारत की आज़ादी को 75 वर्ष पुरे हो गए हैं लेकिन अभी तक क्रिकेट का लोकतंत्रीकरण नहीं हुआ है। क्रिकेट को खेलों का बादशाह कह सकते हैं। क्रिकेट को चाहने वाले हर गली–नुक्कड़ पर मिल जाएँगे। बड़ी–बड़ी कंपनियाँ खिलाड़ियों को मोटी रकम दे कर अपने लिए विज्ञापन करवाना चाहती हैं। लेकिन, कटु सच्चाई यह है कि इस तरह का रुझान सिर्फ ‘पुरुष’ खिलाड़ियों के प्रति ही है। क्रिकेट खेलने वाली महिला खिलाड़ी अभी कई चुनौतियों से जूँझ रही हैं। महिला खिलाडियों के पथ में कौनसी बाधाएं खड़ी हैं ?
यूनेस्को के इंटरनेश्नल चार्टर ऑफ फिज़िकल एजुकेशन एण्ड स्पोर्ट की पहली धारा में कहा गया है कि शारीरिक प्रशिक्षण और खेल प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। गौरतलब है कि यह चार्टर 1978 में अपनाया गया था। लेकिन, करीब 45 वर्ष बीत जाने के बाद भी समाज की पितृसत्तात्मक सोच महिला खिलाडियों के साथ न्याय नहीं कर पाई है। दर्शक, क्रिकेटर के रूप में केवल पुरुषों को ही देखते हैं। नतीजन मीडिया भी उन्हें कवरेज देने से बचती है।
दिल्ली स्थित डॉ. बीआर आंबेडकर विश्विद्यालय से हिंदी साहित्य की पढ़ाई करने वाले सुरेश कुमार (24) का कहना है कि मैं क्रिकेट का शौकीन तो नहीं हूं लेकिन कभी–कभार मैच देख लेता हूं। महिला क्रिकेट मैच एक दो बार देखा है। नहीं देखने के पीछे की प्रमुख वजह है जानकारी का अभाव। पता ही नहीं चलता है कि मैच भी है।
कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया शंभावी (22) ने दी है। शंभावी का कहना है कि महिला क्रिकेट के मैच भी देखती हूं। जब जानकारी होती है कि आज मैच है। कई बार जानकारी ना होने से मैच छूट जाते हैं, जिसका अफ़सोस रहता है।
ऐसे में महिला खिलाड़ी, पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में जानी–मानी शख्सियत नहीं बन पाती हैं। तो कोई भी कंपनी अपना विज्ञापन महिला खिलाड़ी के जरिए करवाने से हिचकिचाती है।
वहीं गर कोई कंपनी इस क्षेत्र में पैसे निवेश करती है तो वो सिर्फ किसी खास खिलाड़ी पर करती है, पूरी टीम पर नहीं। ऐसे में लोगों तक मैच की जानकारी पहुंचती ही नहीं है।
बीसीसीआई ने खिलाड़ियों के लिए श्रेणीवार वेतन तय किया हुआ है। नवंबर 2022 तक वेतन में लैंगिक आधार पर भेदभाव था। पुरुष खिलाड़ियों को अधिक मिलता था तो वहीं महिला खिलाडियों को कम। ऐसे में महिला खिलाडियों के लिए आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से यह खेल अधिक सुरक्षित नहीं था। महिला खिलाड़ी अपनी आर्थिक जरूरतें पूरी करने के लिए कहीं अन्य कामों में भी वक्त व्यतीत करती थीं। जिसके कारण पूरा समय खेल को नहीं दे पाती थीं।
कुलमिलाकर, आज के क्रिकेट की जड़ें अतीत से जुड़ी हुई हैं। वर्तमान को समझने के लिए अतीत का बोध आवश्यक है।
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