दास्तान-ए-हिमालय

“ क्रिस्टोफ़र कह गए हैं कि अप्राकृतिक तो कोई चीज़ नहीं है । प्रकृति का एक चरम रूप पेड़, चिड़िया, बाघ, मछली या मनुष्य है तो दूसरा हिमालय पर्वत, थार का रेगिस्तान या कोंकण का समंदर है ।”

यह सवाल रोचक है कि जहाँ आज हिमालय हैं वहाँ पहले क्या था? यदि टैथिस सागर था तो उससे पहले क्या था? क्या यह पृथ्वी की गतिशीलता की एक स्वाभाविक परिणति थी ? क्या पृथ्वी अपना रूप बदलती रही है? यह कहानी हमें अफ्रीका से गौण्डवाना लैण्ड के एक हिस्से के वर्तमान भारतीय उपमहाद्वीप तक खिसक आने तक तो ले ही जाती है।

आज चाहे हिमालय को समस्त मानव जाती की प्राकृतिक-सांस्कृतिक विरासत माना जाने लगा है , पर विभिन्न एशियाई समाजों के चेतन-अवचेतन में यह पर्वत सदियों से धड़कता रहा है । एशियाई समाजों का हिमालय से नाता बहुत पुराना और गहरा है । इसका खुश या उदास, हरा या बदरंग चेहरा और मनमोहक या रौद्र रूप विविध समुदाय सदियों से देखते आ रहे हैं । कम ही लोगों को यह एहसास है कि हिमालय गर्मियों या शरद में सम्पन्न लोगों की ऐशगाह या तीर्थयात्रियों का मोक्ष स्थल या पर्वतारोहियों का विजय क्षेत्र या विभिन्न नदियों का मायका भर नहीं, बल्कि एक ऐसा  भूभाग भी है, जहाँ का आम आदमी अपने परिवेश और परंपरा की हिफ़ाज़त और अपनी ज़िंदगी की बेहतरी के लिए चिंतित है। यह मनुष्यों की भूमि पहले है, देवभूमि बाद में, क्योंकि मनुष्यों ने ही अपने विश्वासों तथा देवी-देवताओं को यहाँ की प्रकृति मे स्थापित किया।

 हिमालय की यात्राओं के लिए कम-से-कम एक दर्जन स्वस्थ, साधन सम्पन्न और समर्पित जीवन चाहिए। कृष्णनाथ ठीक कहते हैं कि 'हिमालय भी हिमालय को नहीं जानता है।' हिमालय के सौन्दर्य को सिर्फ मनुष्य ही महसूस कर सकता है। वे जीव जन्तु जो यहाँ रहते हैं, वे इसकी वनस्पतियों का स्वाद जानते हैं। जो पक्षी इसके आर-पार उड़ानें भरते हैं, वे इसकी ऊँचाई का एहसास रखते हैं पर यहाँ के सौन्दर्य को महसूस करने की क्षमता सिर्फ मनुष्य को ही मिली है।

 माँ तो हर नदी है !

 गंगा के साथ जुड़ी मिथक गाथाएं उसे माँ बना देती है हालाँकि माँ तो हर नदी है । माँ से कम तो कोई नदी हो ही नहीं सकती, और माँ के साथ ज़्यादती करने में मनुष्य माहिर है।  गंगा माता के साथ हमने क्या है जो नहीं किया है? गनीमत है कि यह अब भी बहती है ! हमारी चेतना इतनी तंग हो गयी है कि हम गोमुख से उत्तरकाशी तक ही पवित्रता ढूँढ़ पा रहे हैं।

अपनी नदियों के कारण हिमालय बिना मांगे ही उत्तरी भारत को मिट्टी, उर्वरता और पानी बाँटता रहा है।  ये नदियाँ हिमालय को अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से जोड़ती हैं। मनुष्य की जल्दबाजी से मिट्टी के जाने की गति बढ़ गयी है। दियारा क्षेत्र से बंगाल की खाड़ी के मूर द्वीपों तक इसे पहचाना जा सकता है और यह दरअसल, मिट्टी ही है जो हमें मिट्टी नहीं होने देती है। हिमालय की लड़ाइयाँ इसी मिट्टी की हिफ़ाज़त  के लिए चल रही हैं।

 पर्वतीय आंदोलन

हिमालय के लिए अधिकांश आंदोलन मुख्यतः किसान तथा कंबिलाई आंदोलन थे। जयंतिया, कुकी या मणिपुर का विद्रोह, असम का फूलगढ़ी आंदोलन, उत्तराखंड के जंगलात तथा बेगार आंदोलन, टिहरी रियासत ढंढक तथा प्रजामंडल आंदोलन, हिमाचली रियासतों का प्रजामंडल आंदोलन, जम्मू के चनैनी तथा कश्मीर के नेशनल कॉन्फ्रेंस आंदोलन आदि से हिमालय में प्रतिरोध का मिज़ाज और महत्त्व  समझा जा सकता है।

आस्था की बात करने वाले मनुष्यों तथा अन्य जीव प्रजातियों के अस्तित्व रक्षा की बात करना भूल जाते हैं। अत्यंत संकुचित राष्ट्रवाद के पैरोकार पहाड़ों और नदियों को एक और सिर्फ धर्म विशेष से जोड़ रहे हैं और दूसरी ओर इनको या इनके हिस्सों को कंपनियों को बेच रहे हैं। ऐसे ही लोग राज-व्यवस्था को चला रहे हैं और यह वास्तविक दृश्य ही हिमालय का वर्तमान संकट है और सबकी चिंता का विषय है।

यह आशा करनी होगी की हिमालय की संतानों और समस्त मनुष्यों को समय पर समझ आएगी, पर यह याद रहे कि यह समझ न अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उपलब्ध है और न कोई बैंक या बहुराष्ट्रीय कंपनी इसे विकसित कर सकती है। यह समझ यहाँ के समाजों और समुदायों में है, वहीं से उसे लेना होगा।

 विविधताओं से घिरा हिमालय

 तिब्बत में स्थित सिंधु, सतलज, करनाली, अरुण तथा ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के जलागम तो हिमालयी प्राकृतिक व्यवस्था का अपरिहार्य हिस्सा हैं। हिमालायी समाजों में रामकथा सीमित है, पर ‘महाभारत’ अत्यंत विस्तारित तथा बहुसंस्करणीय रुप में प्रचलित है। कौरवों तथा पाण्डवों का लोक देवताओं में रूपांतरण हिमालय में ही संभव हुआ है। हिमालय से ही उनके स्वर्ग प्रस्थान का मिथक जुड़ा है।

इन मिथकों-यथार्थो के बीच हिमालय की विभिन्न लघु समाज-संस्कृतियाँ हैं, जो अनेक बार एक-दूसरे से अपरिचित होते हुए भी एक-दूसरे से अंत- संबंधित हैं। इसी मे उनके उतसाव, मेले, गीत, नृत्य, संगीत-उपकरण, पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न रुप हैं। सामाजिक  प्रथाएं हैं। कहीं बहु-पतित्व का प्रचलन है तो कही बहु-पतिनत्व का। कहीं विधवा विवाह प्रचलित है और कहीं असंभव बना हुआ है। कहीं बौद्ध करुणा से प्रभावित समाज है तो उसी के पास मणिपुर जैसा वैष्णव क्षेत्र है तो पास में ही ‘हैड हंटर्स’ की कबीलाई नागा परंपरा भी है। कहीं दफ़नाने की प्रथा है तो कहीं जलाने की और कहीं शव को काटकर पक्षियों-जानवरों को खिलाने की। कैलास परिक्रमा में दारचीर्ण से कुछ आगे यमद्वार के ऊपर आज भी इस तरह का शव दाह गृह (स्काई बुरीयल) देखा जा सकता है। उत्तराखंड के गोस्वामी-नाथ समुदाय में मृतक को दफ़नाने की प्रथा है और यह क्रिया मंदिर परिसर मे सम्पन्न की जाती है, जिससे उनका पारंपरिक संबंध है।

 संदर्भ चाहे धरती का हो या हिमालय का, खनिजों और धातुओं से भी महत्त्वपूर्ण होती है। मिट्टी ही जीवों को पोषण तथा जीवनदायी तत्त्व देने वाले उत्पाद उपलब्ध कराती है। सोने से अनाज खरीदा जा सकता है, पर उसमें अनाज नहीं उगाया जा सकता।

अरुणाचल, भूटान, सिक्किम, नेपाल तथा उत्तराखंड में जैव विविधता के कुछ अद्भुत इलाके हैं। सूत्र रुप में यह बताना उचित होगा कि हिमालय का क्षेत्रफल पृथ्वी के क्षेत्रफल का मात्र 0.3 प्रतिशत है, लेकिन यहाँ दुनियाँ भर की जैव विविधता का 10 प्रतिशत मौजूद है।

हिमालय के ये हिस्से जिस देश के भी अंग हों वह देश और उसकी व्यवस्था फ़िलहाल अन्तराष्ट्रिय अर्थतन्त्र के आत्मघाती दबाव में है। यह जल्दी और ज़्यादा कमाई करने वाली अर्थव्यवस्था ने आम जनगण के लिए एक धीमी आत्महत्या की तरह है।

राहुल सांकृत्यायन  और हिमालय

वह मार्क्सवादी, साम्यवादी, समाजवादी से भी आगे मानवतावादी बने । वह लेखक बने- उपन्यासकार, जीवनीकार । यात्रा लेखक बने- कठिनतम और दुर्लभतम इलाकों के यात्री। कहने को वे अपने को ‘संयोग से बना लेखक’ भी कहते थे। पुरातत्त्व तथा मूर्तिकला की तरफ़ चाहे उन्होंने शौकिया नजरों से देखा हो, पर इतिहासकार के रूप उन्हें ख्याती मिली-विशेषकर हिमालय और मध्य एशिया के इतिहासकार के रूप में ।

 ‘मुझे नाम और सम्मान कोई ऐसी ठोस चीज़ मालूम नहीं होती ।

ठोस चीज़ है वह काम, जो स्वयं तो नष्ट हो जाता है, लेकिन

आगे काम करने वालों को धक्का देकर एक कदम आगे बढ़ा देता है ।...’

 

राहुल को ‘ मध्य एशिया का इतिहास ’ ग्रंथ के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया । दार्जीलिंग मे आज भी ‘राहुल निवास’ अपनी जगह पर है। आज उसे एक संग्रहालय बनाने की समझ प्रांत और देश की सरकारों और समाज को आनी चाहिए । यहीं 14 अप्रैल 1963 को राहुल का निधन हुआ। हिमालयविद, एक चीर घुमक्कड़, एक बेचैन अन्वेषक सो गया।

 एक आजन्म सिपाही- चंद्र सिंह गढ़वाली

पेशावर काण्ड 23 अप्रैल 1930 चंद्र सिंह गढ़वाली तथा उसके साथियों का अपने खुद के अतीत से नाट तोड़ना यानी ब्रिटिश सरकार के स्थान पर जनता का पक्षधर बनना किन्हीं रोमानी युवकों का भावुकता भरा नहीं बल्कि अनुभवी, प्रौढ़ तथा राजनीतिक रूप से चैतन्य सिपाहियों का गंभीरता से लिया गया निर्णय था । अवश्य ही आज हिंदुस्तान को चंद्र सिंह गढ़वालीयों की जरूरत है जो राजनीति को पेश न बनायें, जनता को ठगने से इनकार करे। अपने शब्दों को जियें। अपने कर्मों को कहें। राज्य के इस असाधारण रूप से हिंसक और दमनकारी तथा अनेक प्रांतों में पुलिस के सांप्रदायिक हो चुकने और आम जनता के तरह तरह की विघटनकारी ताकतों से घिर चुकने के दौर में चंद्र सिंह गढ़वाली अत्यधिक प्रासंगिक, प्रेरक और पास लगते हैं, इस संदर्भ में विशेषकर खुद सेना और पुलिस के लोगों को देश के आम नागरिक की हैसियत से उक्त दमन और विघटनकारी प्रवर्तियों का प्रतिकार करना चाहिए ।

हिमालय से सीख

कैलास मानसरोवर क्षेत्र उत्तरी भारत का एक पारिस्थितिक स्रोत होने के साथ-साथ अपने सांस्कृतिक-धार्मिक आकर्षणों में भी विशिष्ट है । हमारे पास ऐसा कोई बहु-सांस्कृतिक , बहु-धार्मिक गंतव्य इस सकल पृथ्वी में नहीं है , जहाँ इतने विविध समुदायों, धर्मों, संस्कृतियों और देशों/क्षेत्रों के लोग एक साथ यात्रा करते नज़र आते हैं । अनेक बार इशारों में और कुछेक बार अनुवादकों की मदद से । इन अनेक दशकों में जब दुनिया मे खगोलिकरण के तहत एकल संस्कृति के साथ कट्टरपंथ का फैलाव हो रहा है , संकुचित राष्ट्रवाद फैलते नज़र आ रहे हैं , हम इस क्षेत्र, इसकी प्रकृति और संस्कृति से बहुत कुछ सीख सकते हैं ।

इस दुर्लभ प्रक्रिया को हम और आगे कैसे ले जा सकते हैं? यह आज विचारणीय है। इस त्रिसंधि (पश्चिमी तिब्बत, कुमाऊँ, भारत तथा नेपाल) क्षेत्र में निवास करने वाले समुदाय एक टिकाऊ अर्थव्यवस्था चाहते हैं पर पारिस्थितिक के विनाश कि कीमत पर नहीं । यह समझ जाना चाहिए कि कैलास मानसरोवर क्षेत्र को ल्हासा, काठमाण्डू, बद्रीनाथ, अयोध्या  या जेरूसलम कि तरह ‘विकसित’ करने की जरूरत नहीं है। यदि इस विराट रंगभूमि से हम प्रकृति को घटायेंगे , वन्यता को सीमित करेंगे तो सांस्कृतिक क्षय भी लगातार होगा ।

हमें तीर्थ यात्रा के तत्वों को बढ़ाने और पर्यटन के तत्वों को घटाने की जरूरत है । पर्यटन के साथ जिस तरह उपभोग, गंदगी, शोर और श्रेष्ठता का भाव जुड़ गया है वह आगंतुक को आतिथेय से बहुत ज़्यादा शक्तिशाली बनाता है । यह सुविधाओं (होटल ,सड़क, हवाई अड्डे, रेल मार्ग तथा वाहन आदि) से सीधा जुड़ा है । पर उपभोग के मिजाज़ और दुष्प्रभाव (पॉलीतथीन, प्लास्टिक बोतलें प्रदूषित करने वाले ईंधनों के अधिक इस्तेमाल) से अलग करना भी संभव नहीं है । यह समझ और प्रयोग किया जाना है कि क्या तीर्थटन के अत्यंत मानवीय और व्यापक सूत्र ‘आधुनिक तीव्र पर्यटन’ एजेंडे में शामिल किये जा सकते हैं या नहीं?

 रेखांकित मुख्य अंशों का स्रोत

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