पुस्तक समीक्षा -  हाशिये पर छूटे भारत की तस्वीर 'एक देश बारह दुनिया'

बचपन से शहरी जीवन जीने का सौभाग्य कहूँ या अच्छी शिक्षा पाने के वास्ते गाँव  की हरियाली से बिछड़ने का सौदा । मैंने किसी के जीवन का इतना दुख एक साथ न कभी सुना था न  देखा था।  समझ में तो हमेशा से बना रहा - आए दिन अखबारों और टी.वी की खबरों से घिरे हम लोग दुनिया भर की कहानियाँ देख–पढ़ लेते हैं।  पर सवाल यह है कि इनके जीवन के ताप को कितना महसूस कर पा रहे हैं ?  

प्रकृति के नियम सबके लिए समान होते हैं।  हम सबको यह दुनिया बाहर से एक जैसी दिखती है। लेकिन जब हम एक ही देश के विभिन्न हिस्सों के बारे में जाने तो पता लगता है कि प्रकृति के इन नियमों के  दायरे से अभी भी कई लोगों को दूर रखा जाता है।  जीवन के महत्त्व का असली अनुभव तभी पता लगता है जब हम एक ही देश की बारह प्रकार की दुनिया का रुख करते हैं। 

लेखक एवं पत्रकार  शिरीष खरे की  किताब ‘ एक देश बारह दुनिया ’ हमें भारत को गहराई से जानने का मौका  देती है।  यह किताब रिपोर्ताज शैली में लिखी गई है।  इसमें आपको कई रिपोर्टों का संकलन एक साथ पढ़ने को मिलेगा।  

हम  इस बात की परिकल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि किस जगह  क्या मिल जाए।  कितने ही लोग हैं जो आशा लगाए बैठे हैं ? कितने ही लोग बिखरे पड़े हैं ?

कई बार ये सोचती हूँ कि  काश ये दुनिया सबके लिए एक सामान होती। सबके हिस्से खुशियाँ होती। 

मेलाघाट में भूख से तड़पते  बच्चे, कमाठीपुरा की गलियों में अपना शरीर बेचती लड़कियां , तिरमली के बंजारे, महादेव बस्ती के उजड़ते घर इस किताब ने मुझे ऐसी दुनिया से रुबरू कराया जिसे हम शायद दो -एक बार अखबारों या टीवी में किसी बड़े मुद्दे में तब्दील होते हुए ही देख पाते हैं ,वो भी जब यह पहली बार हुआ हो।  एक पत्रकार जब इन सब घटनाओं की ज़मीनी रिपोर्ट करता है। अक्सर इन बातों का सिलसिला उनके मन में जारी रहता है। एक टिश सी रहती अपनी कहानी को आवाज़ देने की। हम सब तो इसे आम घटना बनाकर अपने ख्यालों में खो जाते हैं। जो लोग इसके शिकार हैं, वह आज भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। 

आसमान बहुत शांत हैं , घाट में पानी बह रहा है, पेड़ों  पे फल लगे हैं, चिड़ियाएं चहक रही हैं, पशु घास चर रहे हैं , कितना सादा जीवन है।  ऐसा हमे प्रतीत होता है जब हम गाँवों की कल्पना करते हैं। भीतर जाने पर पता चलता है कि ऐसे कई छोटे गाँव  , कस्बों और इलाके कि कई कहानियां साल भर साल यही दब के रह गई हैं। लोगों का जीवन विषमताओं से भरा हुआ है।  कहीं  बच्चे भूख  से बिलख–बिलख कर मर रहे  हैं , कहीं लोगों   पर रहने को घर नहीं हैं  , कहीं खेती के लिए ज़मीन  का टुकड़ा नहीं,  कोई छोटी जात का है तो कोई उच्ची जात का  ।  कोई खुद को बाज़ार में बेच रहा है,  किसी को बाज़ार में उसकी फसल का  उचित दाम नहीं।  रस्सी की डोरी पर खेल दिखाते  बच्चें , खिल्लोंने की तरह उजड़ती झोपड़ियाँ , माँ नर्मदा की बर्बादी , मानसून की  देरी। सब छूट गया है।  

आधुनिकीकरण की अंधी दौड़ में गरीब तबके के लिए सिर्फ बचा है तो सिर्फ हताशा की आगोश में जीना ! 

लेखक, शिरीष खेर की किताब के पहले अध्याय के कुछ शब्द   :

“तुम आज इस हकीकत से सामना नहीं कराते तो मैं भी शायद पत्रकार ही रहता, जो इस गुमान में ही जी रहा होता कि किसी पत्रकार के लिए हत्या की धमकी ही सबसे बड़ी चुनौती हो सकती है।  मैं कभी यह जान ही नहीं पता कि इस तरह की तकलीफ को झेलने का जज्बा कायम रखना एक पत्रकार के लिए उससे भी बड़ी चुनौती हो सकती है। “


मेलघाट बच्चों की मौत का घाट !

कुपोषण की  कहानियाँ  तलाश रहे लेखक शिरीष खेर अपने साथी के साथ मेलघाट पहुंचते हैं। वहां की परिस्थितियों का कथन आपको अंदर से झकझोर देगा।  लेखक कहते हैं कि “मैं इस बात से वाकिफ़ था कि भूख किसी के साथ भेदभाव नहीं करती।  जानता था कि वह सबका पेट बराबर जलाती है और इस पेट की आग को बुझाने लायक जरूरी अनाज सबके हिस्से में नहीं होता।” 

भूख के निर्मम रूप को लेखक ने जितने करीब से देखा है, इसका अंदाजा उनकी मेलघाट यात्रा की लिखी हर एक लाइन  से होता है।  मेलघाट में हर साल छह साल तक के औसतन छह सौ से ज़्यादा बच्चों की मौत हो रही है। वर्तमान की बात करें तो ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर भारत की रैंकिंग , 2022 में 121 देशों के इंडेक्स के  मुकाबले   107 वें पायदान पर है।  राजस्थान , उत्तरप्रदेश , बिहार , असम साथ ही मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़िसा और  नागालैंड, त्रिपुरा आदि   कुपोषण से प्रभावित क्षेत्रों  में आते  हैं। 

भारत एक कृषि प्रधान देश है। आज भी यहां 60 प्रितशत  लोग जीवन व्यापन के लिए खेती पर  निर्भर हैं।  मेलघाट का चित्रण करते हुए लेखक बताते हैं की यहां महज़ सत्ताईस प्रतिशत पथरीली ज़मीन पर खेती होती है, जो कि बारिश के भरोसे है।  बाकि सब जंगल से ढ़की है।  लेकिन सिमोरी गाओं का एक व्यक्ति कहता कि उनके लिए  यह ‘सुखी’  यानी कुपोषण की स्थिति पहला डर है और दूसरा बारिश का होना। दरअसल जब गाँव में खेती न हो पाए और दूजा कोई रास्ता न हो तो अक्सर लोगों को नौकरी करने बाहर जाना पड़ता है।  ऐसे में बारिश के कारण लोगों का गाँव से बहार काम के लिए निकलना दूभर हो जाता है और उनके घरों  में अनाज का एक दाना नहीं होता। 

अचरज की बात तो यह है कि ऊपर बैठे नेताओं को बताने पर भी इसका कोई उपाय नहीं किया जाता।  पहाड़ों और जंगलों के बीच जैसे लोगों की आवाजों को इतना दबा मान लिया जाता है कि उनकी दस्तक कानो तक पड़ ही नहीं पाती। 

"सर, मेलघाट की कहानियाँ बताती हैं  कि बच्चों की मौत की बड़ी वजह है भूख "...
"यह कहते कहते मुझे लगा की मैं अकेले ही बोले जा रहा हूँ।  तभी दूसरी ओर से अचानक जयकारे सुनाई देते हैं और मोबाइल कट जाता है।  मुझे लगा की नेटवर्क न होने के कारण मोबाइल कट गया होगा, लेकिन बार-बार घंटी जाने के बावजूद के मोबाइल नहीं उठाते। "

कमाठीपुरा: सेक्स के लिए सबसे सस्ती जगहों में से एक

कुर्सी में ऊपर बैठे लोगों को मुफ्त में बड़ा घर और आँगन मिलता है।  इसलिए उन्हें अँधेरे में  दबी आवाजों का अंदाजा नहीं होता। लेखक कृष्णा कुमार अपनी किताब ‘चूड़ी बाज़ार में लड़की’ में वैश्यावृत्ति का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि वैश्यावृत्ति में जुडी लड़कियों  का होना पुरुष को अपनी स्वतंत्रता का अनुभव कराता है। ऐसे ही एक गलियों में आता है  कमाठीपुरा।  जहां न जाने कहां कहां से लड़कियों को लाया जाता है। कोई बांग्ला से , कोई नेपाल से तो कोई महाराष्ट्र से ही । कुछ धोके में आई कुछ मजबूरी में। वैश्यावृत्ति के जंजाल में फसी , पिंजरेनुमा कोठरियों में अपनी जिंदगी जीती हुई , यहां आपको 12 उम्र से लेके 35 पार की सभी बच्चियाँ और महिलाएं मिल जाएंगी। 

लेखक शिरीष खरे बताते हैं कि यौनकर्मी बनने के पीछे बहुत सारी कहानियाँ पारिवारिक हिंसा -दुत्कार , अपराध, अनाचार  और खरीद-फ़रोख्त से भी जुड़ी हैं। इनमें भी वो लड़कियाँ ज़्यादातर शामिल हैं , जो पिछड़े और गरीब वर्ग से आती हैं।  होने को तो भारत में यौन व्यवसाय रोकने के नियम कायदे बने हुए हैं।  लेकिन इन नीतियों में इनके जीवन के स्तर को उठाने की बजाय इन्हें जीने के मौके देने वाले नियमों पर काम हो तो कुछ बात बनेगी। 

तिरमली बंजारे और सैयद मदारी। 

किसी रोज गाँव  में नाच- गाना होता था, रंगमंच सजता था , जादूगर वाला आता था। आज के बदलते दौर में ये सब चीज़े महज किस्से कहानियों में सुनाई पड़ती है।  आधुनिकीकरण में टेक्नोलॉजी का विकास इस तरह हुआ है कि  सब एक छोटे से मोबाइल में फिट हो चूका है- स्मार्ट फ़ोन में ।  न अब बच्चे गली और खेतो में क्रिकेट खेलते दिखाई पड़ते  हैं, न अब पहले की तरह गाँव  की भीड़ कोई जादू देखने जाती है।  

आँध्रप्रदेश से महाराष्ट्र के क्षेत्रों में आई  तिरमली बंजारों  की बदलते दौर की कहानी को चित्रित करते हुए लेखक बताते हैं कि  किस तरह  इनका मुख्य पेशा  नंदी बैल पर गृहस्थी चलाना और गाना  बजाना था। तिरमली महिलाएं भी घर चलाने में सहयोग करती हैं।  वह हमेशा से चूड़ियां और जड़ी बूटियाँ बेचती आई हैं। परंतु अब मनोरंजन के साधन बदल गए हैं , स्मार्ट फ़ोन , एल सी डी टीवी और एफ एम रेडियो ने परंपरागत उपकरणों की जगह घेर ली है।  बंजारों को कौन ही पूछता है ? सरकार को इनकी नागरिकता का कागज़ चाहिए , पर इनके पास तो रहने को स्थायी आवास ही नहीं।  ऐसे में ये बंजारें अपने ही देश में परदेसी की तरह जी रहे हैं। 

आष्टी , महाराष्ट्र ।  सैयद मदारी घुमन्तु ज़मात  "हमारे खेल की खास बात यह है कि हमने कभी इस पर टिकट नहीं लगाया। रास्ते पर जो मिलता है , हम उसे खुश करते हैं।  हमारे लिए अमीर-गरीब सब बराबर हैं। "

गन्नो की मिठास के पीछे की कड़वाहट। 

मीठा खाना किसको नहीं भाता है ? भारत  में चीनी उत्पादन की मिठास वर्ष 2021 -2022  में 359 लाख मैट्रिक टन रहा है।  और ये चीनी आती कहा से है ? गन्ने से।  उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में उगने वाले इन गन्नों के पीछे की कहानी भी आपको चौंका देगी।  चोराखाली के धाराशिव चीनी मिल। मिल के किनारे बसी बस्तियाँ , जिन्हें दस-पंद्रह दिनों में अलग-अलग गाँव के खेतों में भेजा जाएगा।  गन्ने की इन खेतों में  कितनी महिलाओं ने अत्याचार झेला होगा , बच्चे-बच्चियों ने शिक्षा को छोड़ा  होगा, किसानों ने उच्ची जाती के  जुल्म को  ढोया होगा ।  इन सबका वर्णन विस्तार से किताब में अंकित है। 

औपनिवेशिक अतीत का आँखों देखा हाल। 

“कहने को विकास का जाति से कोई लेना-देना नहीं होता। किंतु, महादेव बस्ती के उदाहरण से मैंने जाना कि कुछ वंचित समुदाय ऐसे भी  हैं जो भूगोल से भले ही उजाड़े नहीं गए हों पर विकास के मूल विचार से विस्थापित हो चुके हैं "

पारधी जनजाति की अपने अस्तित्व की लड़ाई को लेकर लेखक बताते हैं कि पारधी बस्ती गाँव से कोसों दूर जंगलों में रहती है।  न यह कोई सड़क जाती है , न सरकार की कोई योजना। न बिजली , न पानी,  न राशन और न ही स्वास्थ्य की कोई सुविधा है।  ऐसे हालातो में भी यहां एक विधालय है।  महादेवी बस्ती का यह स्कूल। शिक्षा ही एकमात्र  रास्ता है जो आपके समाज और अपने अधिकारों के प्रति आपको जागरूक बना सकता है।  

झोपड़िया तोड़ता बुल्डोज़र, विकास की  नई परिभाषा 

एलिट क्लास के प्यार में सरकारें भूल जाती हैं कि झुग्गी- झोपड़ियों में भी लोग रहते हैं, जानवर नहीं। स्मार्ट सिटी बनाने के सिलसिले में गरीब लोगो के सर से  साया उठाना, एक नई प्रक्रिया का हिस्सा बन चूका है।  डेमोलेशन की बात अब सामान्य हो गई है।  

भारत के पश्चिम में बसे  गुजरात में स्तिथ सूरत शहर को न्यू सूरत में बदलता देख लेखक बताते है कि जब टेम्स नदी के आसपास के लन्दन को सूरत की ताप्ती नदी में उतरने का सपना करीब करीब पूरा होने वाला था।  इसकेलिए शहर में जीरो स्लम अभियान चलाया गया।  सूरत की सूरत चमकाने और सड़कों को चौड़ा करने के नाम पर हजारों लोगों ने अपने आशियानों को उजड़ते देखा।  और आज भी स्थिति कुछ बदली नहीं।  आप शोध करेंगे तो पाएंगे कि  भारत में कई ऐसे बस्तियों , झुग्गी - झोपड़ियों को विकास की प्रक्रिया ने खत्म कर डाला है।  कुसूर ये था की आपके हिस्से एलिट क्लास की तरह पैसा और संसाधन नहीं है।  

माँ नर्मदा का शोषण।  

विकास के नाम पर गाँव के लोगों से हो रहे खिलवाड़ को लेखक करकबेल निवासी रजनीश दुबे से  बात करते हैं तो वह  सवाल उठाते हैं  कि बाँधों की बिजली किसकेलिए बनाई जाती है? … उद्योगों के लिए। बरगी बाँध से बिजली बनी वह किसानों को मिली ?... सवाल भी उन्हीं के हैं और जवाब भी उन्हीं के पास हैं।  सरदार सरवोर, इंदिरा सागर नजाने कितने ही छोटे बड़े बाँध बनाये गए।  आज भी भारत के कई गाँव में रौशनी के लिए खड़ा है तो चमकता चाँद ! गाँव में बिजली आने से पहले उन्हें शहरों की चकाचौंध बनाये रखने के लिए लूट लिया जाता है।  बिजली बनाने के लिए कई योजनाएँ हैं , लेकिन बिजली का सही इस्तेमाल और हकदारों के लिए एक भी योजना न बन पाई। 

कटते जंगल, घोर अमंगल !

मध्यप्रदेश के डिंडोरी इलाके से आगे मंडला जाते समय नंगी पहाड़ियों के दृश्य पर सेराझन गाँव के धनसिहं बताते हैं - “दस एक साल पहले जंगल इतना अधिक घना था कि यहाँ से सूरज न दिखता था। “ 

चलते चलते राह में गाँव के अलग अलग रहवासी से बात करने पर  अलग-अलग कहानियाँ निकल कर आती हैं।  बात करने  चलता हैं की इनका कहना है क की महामारी का तो डर दिखाया गया, पर बात कुछ और है।  रहवासी लेखक को बताते हैं कि ऐसा इसलिए की महामारी की आड़ में साल के कई वृक्षों को काटा जा सके। साल की लकड़ियों के बाज़ार  में अच्छे दाम मिलते हैं।  यही कारण भी है कि  इसकी तस्करी की घटनाएँ बढ़ गई हैं।  

बायतु , राजस्थान। 

राजौ और मीरा एक गाँव की दो कहानियाँ और  दोनों ही महिलाओं का परिवार  अपने साथ हुए अन्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन अशिक्षा , आर्थिक तंगी  और तरह तरह की अड़चनों से जूझने के बावजूद समाज की सोच और समाज पर निर्भरता ही उनके न्याय के रास्ते की सबसे बड़ी विपदा बन गया है। 

झोपड़ी के बाहर उसने खड़े होकर अपनी एक फ़ोटो खिंचवाई। फिर मैंने पूछा की वह अपना नाम कुयं नहीं छिपाना चाहती ? उसने बेझिझक कहा , “ मेरा असली नाम और फ़ोटो ही देना भाई ! नहीं तोह कुछ मत छापना।  गाँव के जिन ताऊ लोगों के सामने लाज -शरम  से रहना था, उनके सामने ही घाघरा उतर गया तो दुनिया में जिन्हें जानते तक नहीं , उनसे बदनामी का कैसा  डर !”

इस  तरह की कई कहानियों को रिपोर्ट करते हुए  लेखक, शिरीष खेर ने अपनी किताब एक  देश बारह दुनिया में भारत के बहुत से लोगों के जीवन की व्यथा को अपने शब्दों में कुछ इस तरह से उतारा हैं कि  हर एक अध्याय की पंक्तियाँ आपकी आँखों को नम करदेंगी। 

लोगों का जीवन हमारी कल्पनओं से अधिक विषम है।  विकास की परिभाषा तो दूर यहां लोगों पर जीवन जीने के मूल संसाधनों का भी सहारा नहीं।  भारत के हर कोने में इस ही  तरह नजाने कितने लोगों का जीवन  भीकरा पड़ा  हैं, जहां से न शायद किसी  की आवाज़ उठ पाती  है , न किसी की सुनाई पड़ती है। 

ऐसे में जब सब पीछे छूट रहा है। इसके बावजूद भी पत्रकार उन लोगों की आवाज़ को जिन्दा रखता है जिसे अक्सर हम दो एक दिन में दरकिनार कर देते हैं।  


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