पुस्तक समीक्षा: ‘बा’ - गांधी के सत्य के पीछे की  सत्यगृही

भारत की आज़ादी की कहानी अक्सर कुछ सीमित नामों के इर्द-गिर्द कही जाती है—महात्मा गांधी, नेहरू, भगत सिंह या सुभाषचंद्र बोस। पर इतिहास के इन पन्नों में जो स्त्रियाँ स्याही की तरह घुली हुई हैं, उनकी आवाज़ शायद ही कभी पूरी तरह सुनी गई हो। गिरीराज किशोर का उपन्यास ‘बा’ उसी गुमनाम आवाज़ को पहचान देने की कोशिश है — कस्तूरबा गांधी, जो सिर्फ़ “बापू की पत्नी” नहीं, बल्कि संघर्ष, सहिष्णुता और आत्मबल की प्रतिमूर्ति थीं।

कस्तूरबा: मौन में प्रतिरोध की प्रतीक

यह उपन्यास कस्तूरबा के जीवन पर गहन शोध  के बाद लिखा गया है । कस्तूर और गांधी बचपन से एक ही आँगन में खेल कूद करते हुए बड़े हुए थे । उनका विवाह भी बाल अवस्था में ही हो गया था। क्योंकि गांधी के पिता उस समय राजकोट (गुजरात) के दीवान थे इसलिए विवाह के बाद कस्तूर को अपना घर छोड़ के जाना पड़ा। कस्तूर के मन की उस समय की वेदना को लेखक किताब में लिखते हैं “कस्तूर जिस पृष्ठभूमि से आई थी, उसमें लड़‌कियाँ धैर्य और सहिष्णुता सीखकर आती हैं। हो सकता है, कस्तूर के मन में भी ये सब बातें हों जो मोनिया ( मोहनदास गांधी) को उद्वेलित कर रही थीं! वह अपने घर में दो हिस्सों में बँटी थी। एक उसका घर, बा-बापू, भाई और घर से जुड़े सब लोग। वह अपने-आपसे पूछती थी, क्या मुझे इन सबको छोड़ना पड़ेगा, पर क्यों ? क्या मैं यहाँ नहीं रह सकती ! बा-बापू मुझे क्यों निकाल रहे हैं? मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है? बा से आँखों में आँसू भरकर पूछा भी था। बा भी रो दी थी। पीहर छोड़ते समय हर बेटी के मन में यही सवाल आता है, पर किसी बा के पास इसका उत्तर नहीं होता। बा भी तो मन में यही सवाल लिये विदा होकर आई थी।“

गिरिराज किशोर ने कस्तूरबा के जीवन का चित्रण महज़ गांधी की छाया में नहीं, बल्कि उनकी अपनी संवेदना और आत्मसंघर्ष के साथ दिखाया है। उपन्यास में कस्तूरबा का मौन किसी कमजोर नारी का प्रतीक नहीं है, वह प्रतिरोध है जो उनके जीवन के अंत काल तक निरंतर बना रहा। वह पितृसत्तात्मक परंपराओं, जातिगत संकीर्णताओं और अपने ‘पति के आदर्शों’ के बोझ तले भी अपनी सहिष्णुता और गरिमा बनाए रखती हैं। साउथ अफ्रीका की उनकी यात्राएं, गांधी जरीए उन्हें रोगियों की सेवा के लिए मजबूर करना, भारत में जेल का रुख, अपने बच्चे से बिछुड़ना का दुख, इन सब के बीच बा का आंतरिक संवाद बहुत कुछ कह जाता है - वह एक चुप स्त्री होकर भी अपने भीतर सवाल करती है।

‘बा’ और ‘बापू’: समानांतर यात्राएँ

गांधी का जीवन जहां सत्य और अहिंसा की प्रयोगशाला था, वहीं बा का जीवन सहनशीलता और मानवीय संवेदना की पाठशाला थी। उपन्यास का सबसे प्रभावी हिस्सा तब आता है जब कस्तूरबा कहती हैं - “मैंने उनके प्रयोगों को पढ़ा नहीं, पर उन्हें जिया है।” यह वाक्य ही इस उपन्यास का सार है। यह सिर्फ़ पति-पत्नी का रिश्ता नहीं, बल्कि दो अलग-अलग विचारधाराओं के सहअस्तित्व की कहानी है ; एक जो आदर्शों से दुनिया बदलना चाहता है, और एक जो जीवन के भीतर कि सच्चाई को झेलकर उसे अर्थ देती है।

लेखक, कस्तूरबा को किसी देवी का रूप नहीं देते, बल्कि एक आम स्त्री की तरह पेश करते हैं, जो अपने पति से प्रेम करती है, उनसे लड़ती हैं, सवाल करती है, उनके निर्णयों पर असहमत भी होती है फिर भी उनके साथ खड़ी रहती है। यह उपन्यास दिखाता है कि अहिंसा और करुणा की पहली प्रयोगशाला गांधी नहीं, बल्कि बा थीं। उनके भीतर की संवेदना ने गांधी को भी बदलने पर मजबूर किया। शायद यही कारण है कि जब गांधी जेल से पत्र लिखते हैं, तो कहते हैं –“अगर तुम मर भी गईं, तो भी मैं तुम्हें उसी तरह प्यार करता रहूँगा।” यह वाक्य केवल पति-पत्नी का नहीं, बल्कि दो आत्माओं का संवाद बन जाता है।

लेखन शैली और संरचना

गिरीराज किशोर का लेखन न तो ऐतिहासिक वृत्तांत है, न ही पूरी तरह कल्पना-प्रधान। वह इतिहास और संवेदना, दोनों के बीच एक सेतु बनाते हैं।  भाषा सरल है पर गहराई से भरी हुई। वह कस्तूरबा की दुनिया को छोटे-छोटे घरेलू दृश्यों से रचते हैं।  जैसे पीहर छोड़ने की पीड़ा, कस्तूरबा का इंतज़ार और डरबन की यात्रा, या जेल की कोठरी में बीमार बा का बापू को  पत्र लिखना।  हर प्रसंग में एक नारी दृष्टि की सादगी, वेदना और शक्ति महसूस होती है।

लेखक ने संवादों के बीच कई दार्शनिक प्रश्न उठाए हैं — जैसे, “क्या वासना और वात्सल्य एक-दूसरे के विरोधी हैं?” या “क्या स्त्री का प्रेम त्याग में बदलना ही उसका धर्म है?” ये प्रश्न इस उपन्यास को सिर्फ़ ऐतिहासिक नहीं, बल्कि समकालीन भी बनाते हैं।

नारीवादी दृष्टि से ‘बा’

‘बा’ सिर्फ़ एक जीवनी नहीं है। उन्हें पढ़ना एक तरह से नारिवाद  को समझने का बा’ सिर्फ़ एक जीवनी नहीं है। उन्हें पढ़ना एक तरह से नरिवाद को समझने का जरिया भी है। कस्तूरबा और गांधी का संवाद, ‘बा’ के भीतर अपने अस्तित्व की खोज करना है। लेखक के शब्दों में, स्त्रियों का मौन उनकी अनुपस्थिति का प्रतीक नहीं होता। कस्तूरबा अपने जीवन की पूरी  कहानी में मौन होकर भी प्रतिरोध करती रहीं, उनकी आंतरिक शक्ति समाज के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है, जहां औरतें अपने हिस्से की आज़ादी धीरे-धीरे प्राप्त करती हैं। 

‘बा’ को पढ़ना हमें बापू के भी एक भिन्न रूप का परिचय देता है। उनके पति, पिता और अंतत:  राष्ट्रपिता बनने तक की यात्रा में वह अपने निजी जीवन में किस तरह रहे होंगे, उपन्यास ने इसका अद्‌भुत चित्रण किया है। कस्तूरबा की जीवन यात्रा का यह दस्तावेज़ हमें  एहसास दिलाता है कि एक स्त्री का त्याग सिर्फ व्यक्तिगत नहीं होता वह एक सामाजिक परिवर्तन कि शुरुआत भी हो सकता है। 

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